अंबर से पूछा वसुधा ने नाथ हमें क्यों बिसराए हो
तुम्हें मिल गई क्या असंख्य रश्मियां विचरती
और चांदनी भी रातों को तुम्हें लुभाती
उषा निशा संध्या सब दिनकर की लीलाएं
और अप्सराओं की मनभावन क्रीडाएं,
सबको अपने अंतस में हो हुए समेटे
धुरी केंद्र आधार तुम्हीं हो सबके स्वामी
और भला क्यों कर तुम मुझको याद करोगे
पर तुम अपना धर्म निभाना चाहे जो हो
नहीं डगमगाना चाहे हो प्रलय कभी तो
मेरा क्या है मैं हूं नाथ चरण की दासी
मिलन प्रेम के बोलों की अभिलाषी या फिर,
स्त्री हूं! स्त्री अब और भला कह सकती है क्या।
उठी तभी अंतस में नभ के घोर तरंगें
सजल जलद तब उमड़ पड़े आनन- फानन में
गर्जन मानो बदल गई सिसकी में नभ की
आंसू झर झर लगे बरसने ओर धरा की
हाय विधाता! ये कैसा कर्तव्य दिया है
वो जो मिलकर भी प्रीतम से मिल न सकूं पर
भीनी भीनी गंध में डूबूं छू न सकूं पर
रोता देख सकूं बाहों में भर ना सकूं पर,
पर तुम धीर धरो प्राणों की प्रिये हृदय में
उर अपना गंभीर करो कर्तव्य वहन हित
नहीं कोई प्यारा मुझको है सिवा तुम्हारे
कोई मिले कहीं तो समझो यही मिलन है
मैं भी हर पल हूं निहारता तुमको लेकिन
त्याग, प्रेम - आसक्ति अपेक्षा कहीं बड़ा है।
त्याग, प्रेम - आसक्ति अपेक्षा कहीं बड़ा है।