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गीता सार अध्याय 5 कर्मयोग कृष्णभावनाभावित कर्म। ( श्लोक 1 से 29 तक)

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श्लोक 1

 

( सांख्ययोग और कर्मयोग का निर्णय ) 

 

अर्जुन उवाच

 

 सन्न्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।

यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्‌॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

अर्जुन बोले - हे कृष्ण! आप कर्मो के स्वरूप से त्याग करने की और फिर कर्मयोग की प्रशंसा करते है। अतः इन दोनो साधनों में जो एक निश्चित रूप से कल्याण कारक हो, उसको मेरे लिए कहिए।

 

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श्लोक 2

 

श्रीभगवानुवाच

 

सन्न्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ।

तयोस्तु कर्मसन्न्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

श्री भगवान बोले- कर्म संन्यास और कर्मयोग- ये दोनों ही परम कल्याण के करने वाले हैं, परन्तु उन दोनों में भी कर्म संन्यास से कर्मयोग साधन में सुगम होने से श्रेष्ठ है।

 

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श्लोक 3

 

ज्ञेयः स नित्यसन्न्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्‍क्षति।

निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

हे वीर अर्जुन! जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा करता है, वह कर्मयोगी सदा संन्यासी ही समझने योग्य है क्योंकि राग-द्वेषादि द्वंद्वों से रहित पुरुष सुखपूर्वक संसार बंधन से मुक्त हो जाता है।

 

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श्लोक 4 

 

साङ्‍ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।

एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्‌॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

उपर्युक्त संन्यास और कर्मयोग को मूर्ख लोग पृथक्‌-पृथक् फल देने वाले कहते हैं न कि पण्डितजन, क्योंकि दोनों में से एक में भी सम्यक्‌ प्रकार से स्थित पुरुष दोनों के फलरूप परमात्मा को प्राप्त होता है।

 

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श्लोक 5

 

यत्साङ्‍ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्यौगैरपि गम्यते।

एकं साङ्‍ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

ज्ञान योगियों द्वारा जो परमधाम प्राप्त किया जाता है, कर्मयोगियों द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है। इसलिए जो पुरुष ज्ञानयोग और कर्मयोग को फलरूप में एक देखता है, वही यथार्थ देखता है।

 

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श्लोक 6

 

सन्न्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः।

योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

परन्तु हे अर्जुन! कर्मयोग के बिना संन्यास अर्थात्‌ मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाले सम्पूर्ण कर्मों में कर्तापन का त्याग प्राप्त होना कठिन है और भगवत्स्वरूप को मनन करने वाला कर्मयोगी परब्रह्म परमात्मा को शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है।

 

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श्लोक 7

 

( सांख्ययोगी और कर्मयोगी के लक्षण और उनकी महिमा ) 

 

योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः।

सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

जिसका मन अपने वश में है, जो जितेन्द्रिय एवं विशुद्ध अन्तःकरण वाला है और सम्पूर्ण प्राणियों का आत्मरूप परमात्मा ही जिसका आत्मा है, ऐसा कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी लिप्त नहीं होता।

 

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श्लोक 8

 

नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित्‌।

पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपंश्वसन्‌॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

तत्व को जानने वाला देखते हुए, सुनते हुए, स्पर्श करते हुए, सूंघते हुए, खाते हुए, चलते हुए, सोते हुए, सांस लेते हुए यह माने की मैं कुछ भी नही करता हूं 

 

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श्लोक 9

 

प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि॥

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्‌॥

 

हिंदी अनुवाद_। 

 

बोलते हुए, त्यागते हुए, ग्रहण करते हुए तथा आंखों को खोलते बंद करते हुए भी, सब इंद्रियां ही अपने अपने कार्यों में लगी है, ऐसा धारण करे।

 

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श्लोक 10

 

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्‍गं त्यक्त्वा करोति यः।

लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके और आसक्ति को त्याग कर कर्म करता है, वह पुरुष जल से कमल के पत्ते की भाँति पाप से लिप्त नहीं होता।

 

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श्लोक 11

 

कायेन मनसा बुद्धया केवलैरिन्द्रियैरपि।

योगिनः कर्म कुर्वन्ति संग त्यक्त्वात्मशुद्धये॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

कर्मयोगी ममत्वबुद्धिरहित केवल इन्द्रिय, मन, बुद्धि और शरीर द्वारा भी आसक्ति को त्याग कर अन्तःकरण की शुद्धि के लिए कर्म करते हैं।

 

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श्लोक 12

 

युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्‌।

अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

कर्मयोगी कर्मों के फल का त्याग करके भगवत्प्राप्ति रूप शान्ति को प्राप्त होता है और सकामपुरुष कामना की प्रेरणा से फल में आसक्त होकर बँधता है।

 

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श्लोक 13

 

सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी।

नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्‌॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

अंतः करण को अपने वश में करके, सब कर्मो को मन से त्याग कर, न उन्हे करते हुआ और न करवाते हुए ही, नौ द्वारों वाले शरीर रूपी घर में योगी सुख पूर्वक रहे।

 

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श्लोक 14

 

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।

 न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।

 

हिंदी अनुवाद_

 

लोकमात्र के लिए प्रभु (ईश्वर) न कर्तृत्व, न कर्मों की और न कर्मफल के संयोग की रचना करते हैं, परंतु प्रकृति सब कुछ करती है।

 

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श्लोक 15

 

नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः।

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

सर्वव्यापी आत्मा न किसी के पाप कर्म को ग्रहण करता है और न किसी के शुभकर्म को। पर ज्ञान के अज्ञान द्वारा ढके होने से सब मनुष्य उस अज्ञान से मोहित हो रहे है।

 

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श्लोक 16

 

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः।तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्‌॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

 परन्तु जिनका वह अज्ञान परमात्मा के तत्व ज्ञान द्वारा नष्ट कर दिया गया है, उनका वह ज्ञान सूर्य के सदृश उस सच्चिदानन्दघन परमात्मा को प्रकाशित कर देता है

 

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श्लोक 17

 

तद्‍बुद्धयस्तदात्मानस्त न्निष्ठास्तत्परायणाः।

गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

जिनका मन तत् (ब्रह्म या आत्म) रूप हो रहा है, जिनकी बुद्धि तत् (ब्रम्हा) रूप हो रही है और जो निरंतर तत् (ब्रह्म) में ही निष्ठा वाले है, ऐसे ज्ञान द्वारा निष्पाप हुए पुरुष परमगति को प्राप्त करते है।

 

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श्लोक 18

 

विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।

शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

ऐसे ज्ञानी जन विद्या और विनययुक्त ब्राह्मण में, गाय में हाथी कुत्ते और चांडाल को समान देखते है।

 

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श्लोक 19

 

इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः।

निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः॥

 

हिन्दी अनुवाद_

 

जिनका मन समभाव में स्थित है, उनके द्वारा इस जीवित अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार जीत लिया गया है क्योंकि सच्चिदानन्दघन परमात्मा निर्दोष और सम है, इससे वे सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही स्थित हैं।

 

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श्लोक 20

 

न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्‌।

स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

जो पुरुष प्रिय को प्राप्त होकर हर्षित नहीं हो और अप्रिय को प्राप्त होकर उद्विग्न न हो, वह स्थिरबुद्धि, संशयरहित, ब्रह्मवेत्ता पुरुष सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा में एकीभाव से नित्य स्थित है।

 

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श्लोक 21। 

 

बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्‌।

स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

बाहर के विषयों में आसक्तिरहित अन्तःकरण वाला साधक आत्मा में स्थित जो ध्यानजनित सात्विक आनंद है, उसको प्राप्त होता है, तदनन्तर वह सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा के ध्यानरूप योग में अभिन्न भाव से स्थित पुरुष अक्षय आनन्द का अनुभव करता है।

 

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श्लोक 22

 

ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते।

आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

क्योंकि हे कुन्तीनन्दन! जो ये इन्द्रिय तथा विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले सब भोग हैं, यद्यपि विषयी पुरुषों को सुखरूप भासते हैं, तो भी दुःख के ही हेतु हैं और आदि-अन्तवाले अर्थात अनित्य हैं। इसलिए हे अर्जुन! बुद्धिमान विवेकी पुरुष उनमें नहीं रमता।

 

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श्लोक 23

 

शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्‌।

कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः॥

 

हिन्दी अनुवाद_

 

जो मनुष्य इसी लोक में शरीर त्यागने के पूर्व ही काम और क्रोध से उत्पन्न हुए वेग को सहन करने में समर्थ है, वह योगी और सुखी मनुष्य है।

 

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श्लोक 24

 

योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः।

 स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

जो पुरुष अंतरात्मा में ही सुख वाला, आत्मा में ही आराम वाला तथा आत्मा में ही ज्ञान वाला है, वह योगी ब्रह्म रूप बनकर ब्रह्म निर्वाण अर्थात् परम मोक्ष को प्राप्त होता है।

 

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श्लोक 25

 

लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः।

छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

जिनके सब पाप नष्ट हो गए हैं, जिनके सब संशय ज्ञान द्वारा निवृत्त हो गए हैं, जो सम्पूर्ण प्राणियों के हित में रत हैं और जिनका जीता हुआ मन निश्चलभाव से परमात्मा में स्थित है, वे ब्रह्मवेत्ता पुरुष शांत ब्रह्म को प्राप्त होते हैं

 

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श्लोक 26

 

कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्‌।

अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्‌॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

काम-क्रोध से रहित, जीते हुए चित्तवाले, परब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार किए हुए ज्ञानी पुरुषों के लिए सब ओर से शांत परब्रह्म परमात्मा ही परिपूर्ण है।

 

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श्लोक 27 

 

स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः।

प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

बाहर के विषयों को न अनुभव करते, नेत्रों की दृष्टि को दोनो भौहों के बीच में स्थिर कर और नासिका में विचरने वाले प्राण और अपान वायु को सम की हुई है।

 

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श्लोक 28

 

यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः।

विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

जिस पुरुष की इंद्रियां, मन और बुद्धि सयम है, ऐसा मोक्ष परायण मुनि इच्छा, भय और क्रोध से रहित है वह सदा मुक्त ही है।

 

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श्लोक 29 

 

भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्‌।

 सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

मेरा भक्त मुझको सब यज्ञ और तपों का भोगने वाला, सम्पूर्ण लोकों के ईश्वरों का भी ईश्वर तथा सम्पूर्ण भूत-प्राणियों का सुहृद् अर्थात स्वार्थरहित दयालु और प्रेमी, ऐसा तत्व से जानकर शान्ति को प्राप्त होता है

 

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 ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मसंन्यासयोगो नाम पंचमोऽध्यायः  

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जय श्रीकृष्ण जय श्रीकृष्ण जय श्रीकृष्ण जय श्रीकृष्ण 

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