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Chapter 3 : राष्ट्रहित !

Chapter 3 : राष्ट्रहित !

Writer : Ajad. 

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मगध की सीमा पर पहुँचते ही आचार्य चाणक्य तुरंत अपने घोड़े से उतरे और घुटनों के बल जमीन पर बैठ गए.

उन्होंने मगध की माटी को अपनी मुट्ठी में भरा और उसे अपने ललाट पर लगाते हुए बोले, "मेरी जननी, मेरी जन्मभूमि, तुम्हें कोटि कोटि प्रणाम. जननी, तुम्हारी यादों को सीने से लगाए वर्षों तड़पता रहा. अब तुम्हारा पुत्र, तुम्हारा लाल चाणक्य, तुम्हारे कर्ज को लौटाने वापस आ चूका है. ये चाणक्य तुम्हें पीड़ा मुक्त करेगा. यह वचन है मेरा."

उसके बाद उन्होंने अपना शीश नवाया और फिर घोड़े के साथ पैदल ही सीमा के अन्दर प्रवेश कर गए. सामने ही एक गाँव था. उन्होंने जब गाँव में कदम रखा तो उन्हें ऐसा महसूस हुआ जैसे किसी आक्रान्ताओं के देश में कदम रख दिया हो.

वो एक छोटे से बाजार से गुजर रहे थे. वहां कहीं लोग मदिरा पान कर रहे थे तो कहीं महिलायें खुलेआम अपना अंग प्रदर्शन कर रही थी. कहीं बच्चे जमीन पर धुल धूसरित मिट्टी पर लोट कर अपने भूख को प्रदर्शित कर रहे थे तो कहीं एक मुट्ठी अनाज के लिए महिलायें और वृद्ध दुकानदारों से ठोकरें खा रहे थे. 

वहां गरीबी जमीन पर लोटी हुई दिखाई पड़ रही थी और अमीरी वेश्याओं के अंग से लिपटी पड़ी थी. क्या वृद्ध, क्या बच्चे, क्या महिलायें और क्या पुरुष, सभी आम लोगों की स्थिति काफी दयनीय थी. वो इन सबका अवलोकन करते हुए थोड़े और आगे बढ़े, तभी उनकी नज़र सड़क के बीचों बीच एक वृद्ध महिला को पीटते एक सैनिक पर पड़ी. 

अचानक वहां एक आदमी आया, वो देखने में एक सेठ मालूम पड़ता था. वो सैनिक से बोला, "सैनिक, कुछ बोला इस कुलक्षिनी ने, इसने सत्य उगला या नहीं ?"

वो सैनिक बोला, "नहीं सेठ, ये दंड सहन कर रही है लेकिन कुछ बोलने को तैयार नहीं है."

सेठ क्रोध में बोला, "और मारो इस पापिनी को. इसने ही मेरे दूकान से सोने का हार चुराया है. मैंने अंतिम समय में इसे ही वहां मंडराते देखा था."

वो महिला गिडगिडाती हुई बोली, "हमें छोड़ दें सेठ. हमने नहीं चुराया है आपका हार. हम तो पास की दूकान में अनाज की खोज में गए थे."

सेठ चिल्लाया, "झूठ बोलती है ये औरत. जब तक ये हार का पता नहीं बता देती. मारते रहो इसे."

सैनिक फिर से उस औरत पर डंडे बरसाने लगा. और वो गिडगिडाती रही - "सेठ हमने नहीं लिया है आपका हार. मेरा विश्वास करें सेठ. अगर आप चाहें तो मेरा ये पुश्तैनी सोने का कंगन रख सकते हैं. लेकिन मुझे छोड़ दें. घर में मेरे छोटे छोटे बच्चे..."

तभी सेठ बोला, "रुको सैनिक, इसे क्या लगता है कि मेरी हार को चुराकर ये मुझे सस्ते कंगन का लालच देगी और मैं मान जाऊँगा. मुझे इसकी तलाशी लेनी होगी."

इतना कहकर वो महिला की तरफ बढ़ा और उसके कपड़ों में हाथ डालने लगा. चाणक्य मगध में ऐसा अत्याचार देखकर चकित रह गया. वो खुद से बोला, "मेरी आँखों के सामने किसी महिला का चरित्र हनन मैं नहीं देख सकता. मुझे इस वृद्ध महिला की सहायता करनी होगी."

वो तुरंत ही उस सेठ के पास पहुंचे और बोले, "रुको सेठ. तुम्हें पैसे चाहिए ना, मैं दूंगा तुम्हें पैसे. छोड़ दो उस औरत को."

आवाज सुनते ही सेठ चाणक्य की तरफ मुड़ा और उसे एक नज़र ऊपर से नीचे देखा. फिर अगले ही पल ठहाका मारते हुए बोला, "कौन हो तुम ब्राहमण ? नए लगते हो, जाओ जाकर भिक्षा मांगो. क्यों अपनी नाक हमारे बीच घुसा रहे हो ?"

चाणक्य ने बिना लाग लपेट के सीधी बात की - "मूल्य क्या है तुम्हारे सोने के हार का ?"

सेठ हँसता हुआ बोला, "तुम चुकाओगे मेरे हार का मूल्य ? दर्पण में कभी देखा है स्वयं को. साथियों, देख रहे हो इस ब्राहमण को, मांग कर खाने वाला ब्राहमण अब हमें भीख देगा. जाओ ब्राहमण जाओ क्यों अपनी जग हंसी कराने आए हो ?"

उसकी बात सुनकर पूरा बाजार ठहाका मारकर हंसने लगा. उसके साथ ही चाणक्य भी उन लोगों पर हँसने लगा. उसे हँसता देख सेठ आश्चर्य करता हुआ बोला, "हम तो तुम्हारे धन से गरीब होने का मजाक उड़ाकर हंस रहे हैं ब्राहम्ण. लेकिन तुम क्यों हंस रहे हो ?"

"मैं तुमलोगों के ज्ञान से गरीब होने पर हंस रहा हूँ. अगर मैं गरीब हूँ तो तुमलोग भी अमीर नहीं हो. अब शीघ्र बताओ मुझे कितना मूल्य है हार का ?"

सेठ हैरत में था. वो बोला, "30 स्वर्ण सिक्के."

"बस इतनी सी बात." कहते हुए चाणक्य ने अपने अंगवस्त्र में छुपाए हुए सिक्के निकाले और गिनकर 30 स्वर्ण सिक्के देते हुए बोले, "ये रहा तुम्हारे हार का मूल्य."

उसके बाद उन्होंने ऊपर से एक और सोने के सिक्के उसकी हथेली पर रखते हुए कहा, "ये रहा तुम्हारे ज्ञान से गरीब होने का मूल्य. इसे किसी अच्छी जगह शिक्षा ग्रहण करने में खर्च करना."

सेठ और पूरा बाजार हैरानी से चाणक्य को देखने लगा था. तभी चाणक्य उस औरत के पास गया और बोला, "माता, आपके सत्य को झूठ के इस बाजार में कोई ग्राहक नहीं मिलेगा. या तो आपको स्वयं सत्य की दूकान लगानी होगी या झूठ का सहारा लेना होगा. इसलिए इन सब को अपने हाल पर छोड़ें और अपने घर जाएँ."

वो बूढी औरत हैरत भरी नज़रों से चाणक्य को देखती हुई बोली, "आप कौन हैं ब्राहमण ? इस मगध में वर्षों बाद कोई आया है जिसने इस सेठ को चुनौती दी." 

चाणक्य उस बूढी औरत के दिमाग को पढता हुआ बोला, "वर्षों बाद कोई आया से आपका क्या मर्म है माता ?"

 "आओ मेरे साथ !!" उन्होंने चाणक्य का हाथ पकड़ा और उन्हें बाजार से दूर ले जाने लगी. उत्सुकता वश चाणक्य भी उनके पीछे पीछे जाने लगे. बाजार से थोड़ी दूर ही उनकी झोपड़ी थी. वो उन्हें झोपड़ी के अन्दर ले गयी. 

चाणक्य जब झोपड़ी के अंदर गए तो वहां उन्होंने देखा कि एक मिट्टी की बनी हुई छोटी सी मूर्ति रखी थी और उस पर फूलों की माला चढ़ी हुई थी. उस बूढी औरत ने उस मूर्ति की तरफ इशारा करते हुए कहा, "पता है ब्राहमण ये किसकी मूर्ति है ?"

चाणक्य ने असमंजस में सर हिलाया. तब वो औरत बोली, "ये हैं आचार्य चणक. जिन्होंने पच्चीस वर्ष पूर्व ऐसे ही अन्यायों से हमारी रक्षा की थी. पता नहीं क्यों इश्वर ऐसे व्यक्ति को अपने पास बुला लेता है."

चाणक्य ने जब ये देखा कि आज भी मगध में उसके पिता को कोई पूजने वाला कोई है तो उनका सीना गर्व से चौड़ा हो गया. लेकिन वो अभी अपनी पहचान किसी से जाहिर नहीं कर सकते थे इसलिए उन्होंने कुछ नहीं कहा.

तब वो औरत आगे बोली, "आचार्य चणक के साथ बहुत बुरा हुआ. लेकिन उनकी आत्मा तब मरी होगी जब उन्हें ज्ञात हुआ होगा कि उसका पुत्र जान बचाने के लिए भाग गया. जिस आचार्य ने मगध के लिए जान दी, उसका पुत्र इतना डरपोक होगा किसी ने नहीं सोचा था. धिक्कार है ऐसे पुत्र पर."

चाणक्य मन ही मन बोले, "माता, मैं कैसे बताऊं आपको कि आपका वो गुनहगार मैं ही हूँ. मैं ही वो भगोड़ा था लेकिन मैं डरपोक नहीं हूँ. मैं पिता के स्वपन्न पूर्ति के लिए ही मगध से पलायन किया था और अब मगध के उत्थान के लिए वापस आया हूँ."

तभी वो औरत बोली, "क्या सोच रहे हो ब्राहमण ? क्या तुम्हें आचार्य चणक के बारे में कुछ भी पता नहीं है ?"

"अपने जनक को कैसे भूल सकता हूँ माता." चाणक्य ने मन ही मन कहा. उन्हें याद आ रहा था कि कैसे जब उनके पिता की मृत्यु निकट थी तो उस समय वो भिक्षाटन के लिए निकले हुए थे. 

25 वर्ष पूर्व 

बालक चाणक्य भिक्षा पात्र लिए एक द्वार पर पहुंचे, "भिक्षाम देहि... भिक्षाम देहि !!!" 

कुछ देर बाद उस द्वार का दरवाजा खुला. उधर से एक औरत एक पात्र में कुछ चावल लेकर आई और चाणक्य के पात्र में डाल दिया. चाणक्य बोले, "धन्यवाद माता !!"

तब वो औरत बोली, "भिक्षुक मेरे पुत्र के लिए प्रार्थना करना, मेरे लाख समझाने के उपरान्त भी वो आचार्य चणक का अनुयायी हो गया है. हमें डर लग रहा है कि कहीं वो राष्ट्र का अहित ना कर दे."

चाणक्य बोले, "आचार्य चणक राष्ट्र का पुत्र है माते, उनका अनुयायी कभी राष्ट्र का अहित नहीं कर सकता. आप निश्चिन्त रहें. आपका लाल सुरक्षित हाथों में है."

"वही तो डर है भिक्षुक. आचार्य चणक राष्ट्रहित में बातें करते हैं परन्तु महाराज धनानंद को वो राज द्रोही लगते हैं. आज आचार्य चणक ने जनसभा बुलाई है. मुझे किसी अनहोनी की आशंका हो रही है."

चाणक्य भी इस बात से अवगत नहीं थे कि आज कोई जनसभा थी. वो औरत से बोले, "आप आशंका को अपने मन से त्याग दें माते और राष्ट्रहित में अपने पुत्र के योगदान का जश्न मनाएं. तुम्हारा पुत्र आज माँ भारती का हो गया."

उसके बाद उन्होंने जमीन से थोड़ी सी मिट्टी उठाई और उस औरत के खाली पात्र में डालता हुआ बोला, "माता, आज से ये मिट्टी भी तुम्हारा ऋणी हो गया."

उसके बाद वो तुरंत ही आगे की भिक्षाटन का त्याग कर वापस अपने गाँव की तरफ लौटने लगा. वो भी आचार्य चणक के उस जनसभा का भागीदार बनना चाहता था. लेकिन वो इस बात से अनजान था कि महाराज धनानंद के महल में एक अलग ही खिचड़ी पक रही थी.

उधर आचार्य चणक ने जन सभा की शुरुआत की और उधर मगध के महामात्य राक्षस ने एक सभा बुला ली थी जिसमें कुछ गिने-चुने मंत्रीमंडल के लोग और स्वयं महाराज धनानंद मौजूद थे.

सभा का निर्णय क्या आचार्य चणक के विरुद्ध जाने वाला था ? क्या बालक चाणक्य अपने पिता से मिल पाएगा ? क्या चाणक्य को महाराज धनानंद की सहायता मिलेगी या मिलेगा अपमान ?

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